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हो । इन कर्त्तव्यो को अलग-अलग एक-दूसरे से बिना जोडे निभाने की खटपट में मनुष्य ने अपना आत्मबोध ही खो दिया है ।
मनुष्य एकान्त मे बैठकर पूजा घर मे सम्यक् बनेगा और पर-द्रव्य से अपनी आत्मा को अ उम करने के लिए ध्यान-धारणा करेगा ताकि वह सब तरह के बन्धनों से मुक्त होने की राह पा सके । माया, मोह, ममता, लोभ, तृष्णा, स्वार्थ और शरीर-निष्ठा की छाया से दूर रह सके । भक्ति-मार्ग वाला प्रभु स्मरण करेगा और सारे संसार को राममय देखेगा । और वही आत्म-भक्त मन्दिर को देहरी से बाहर आकर पूरी तरह खुद को समाज के प्रवाह मे छोड देगा - जितनी माया मिलती हो बटोर लेगा, जिनता स्वार्थ सता हो साध लेगा, जिस किसी तरह बात बनती हो बना लेगा, और इस तरह अपना सारा आत्म-बोध, चिन्तन जो उसने पूजा घर मे बैठकर अर्जित किया था, वह सब समारार्पण कर देगा तो यह सारा माइनस - प्लस (ऋणधन) ही हुआ न? हो ही रहा है। बल्कि माइनस अधिक हुआ है । हम देख रहे हैं कि आध्यात्म आज घुटने टेक कर विज्ञान का दास बना है । हमारी अपनी ही कृतियो के आगे आत्म-ज्ञान चारों खाने चित्त है ।
दिशा एक ही है
अपना
क्या अब वह समय नही आ गया है कि हम अपना आत्म-बोध, अध्यात्म शास्त्रो की चोखट से बाहर लाये और उसे हाट-बाजार तक पहुँचाये ? मनुष्य का वह सारा जीवन जो वह पूजाघर के बाहर जी रहा है उसे अध्यात्म की सुरखी दे ? आत्मा का मार्ग और शरीर का, पुद्गल का मार्ग अलग-अलग है नहीं, दोनो एक ही दिशा में साथ-साथ पदम मिलाकर चलेंगे तभी मनुष्य से आत्म- धर्म - मानव धर्म सधेगा ।
इस खुले सत्य को समझने के लिए बहुत अधिक तर्क की जरूरत नही है। हम देख रहे हैं कि विज्ञान अपने सर्वोच्च शिखर पर है और सारा ससार उसकी चपेट में हैं । चाह कर भी आप उससे बिलग नहीं रह सकेगे । मनुष्य
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महावीर