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होती हैं, व्याख्यायें होती हैं, श्रवण और मनन होता है, मनुष्य श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम करता है और मानता है कि उसकी धर्म-साधना हो गयी ।
मनुष्य के पास उत्तम कोटि के धर्म-ग्रन्थ है । आत्मा-परमात्मा का बारीक-से- बारीक विश्लेषण करने वाले अध्यात्म-शास्त्र । वेद, उपनिषद्, गीता, बाइबिल, कुरान आदि मनुष्य को आत्म-ज्ञान देने वाले आला दरजे के शास्त्र हैं और सैकडो सालो से मनुष्य इन ग्रन्थो की पूजा करता आया है । जैन धर्मबालो के लिए 'समय-सार' भी इसी उच्चकोटि का धर्म-ग्रन्थ है, जिसे हम आत्मा का शास्त्र कहते है । जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वो का गहरा विश्लेषण करने वाला तत्त्व-ग्रन्थ । सम्पूर्ण पदार्थ-जगत् को समझकर आत्मा और आत्मा से परे ससार की बारीक चर्चा करने वाला यह अनोखा ग्रंथ है । एक ऐसा मेटाफिजिक्स - दर्शनशास्त्र - जिस पर मानव समाज को गर्व हो सकता है । पर अन्त में यह ग्रन्थ भी मनुष्य को यही चेतावनी देता है कि- 'शास्त्र ज्ञान नही है, शब्द ज्ञान नही हे, रूप-वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श ज्ञान नही है । काल- आकाश भी ज्ञान नही हैं, धर्म-अधर्म ज्ञान नही है। ज्ञान स्वय मनुष्य ( आत्मा ) है, वह ज्ञायक है तथा ज्ञानी है। ज्ञान ज्ञायक से अभिन्न है नही ।' ठीक इसी आशय की चेतावनी उपनिषद् भी देता है
'जो जन अविद्या मे निरन्तर मग्न हैं।
वे
डूब जाते हैं घने तमसान्ध मे जो मनुज विद्या मे सदा रममाण हैं वे और धन तमसान्ध मे मानो धसे वह प्रात्म-तत्त्व विभिन्न विद्या से कथित एव अविद्या से कथित हैं भिन्न वह
जिस आत्म-बोध की मनुष्य को जरूरत है वह विद्या तथा अविद्या दोनो से भिन्न है - यही सम्यक अवस्था है। लेकिन सम्यक् से तो हम बहुत दूर चले गए है | ज्ञान-विज्ञान की शाखा प्रशाखाओ मे इतनी गहराई तक
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महावीर