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लेने में मनुष्य का कोई सानी नही । इच्छापूर्वक धर्म की साधना में लीन हमारा साधु-समाज तथा बहुत-सा गृहस्थ समाज क्या कम कष्ट झेल रहा है ? इसलिये मैं यह कहूँ कि मनुष्य आरामतलब है, उचित नही होगा। अपनी आत्म-साधना के लिए शरीर का कष्ट उठाने की बात इस देश को सिखाने की जरूरत नहीं है। बस एक ही शर्त है कि जो भी वह करे वह समाज-मान्य हो। मनुष्य को सब कुछ स्वीकार है, अमानेता जीवन स्वीकार नहीं है। साधु-जीवन को यदि समाज मान्यता न दे तो शायद हमारे बहुतेरे साधु उस मार्ग पर जायेगे भी नहीं। यही मनुष्य की सर्वाधिक कमजोर कडी है । __इमलिए मनष्य अब अपने-आपको भी नही देखना चाहता, न वह चाहता है कि उसकी दुखती रगो को आप देखे । भलाई इसी मे मान ली गयी है कि आप भी मेरी पुस्तक नही पढिये, मैं भी आपकी नहीं पहूं । मेरा आवरण आप सराहिये, मैं आपका सराहँ। और इस तरह मनुष्य अपनी ही कथनी से, अपनी ही खोजो से बहुत परे हट गया है। आवरण के नीचे छिपा जावन कूडे का ढेर होता जा रहा है, मालम नही रोजमर्रा वहा क्याक्या दर्ज हो रहा है, ऐसी-ऐसी बाते ज्यो-की-त्यो अक्स की तरह उतर रही है जो मनुष्य के लायक नही है। अपनी ही जमात की कुछ जघन्य बाते मनुष्य जब समाचार के रूप मे पढता है या जानता है तो उसे महान आश्चर्य होता है, पीडा होती है, लेकिन मानव के लिए वर्जित कार्य दिन रात हर मनुष्य से हो रहे है और खूबी यह है कि वे चुभते नही। चुभता है उनका प्रकट हो जाना। इसलिए मनुष्य ने अपनी सारी सिफत, सारी अक्ल, सारा तकनीक, सारा ध्यान इस बात पर केन्द्रित कर दिया है कि जो उसके हाथो मे हो रहा है वह प्रकट न हो। उसने अपने हाथ मे दो तरह के काच (यत्र) ले लिये हैं—एक है जो राई भर अच्छे कामो को वृहदाकार करके पेश करता है और दूसरा है जो बुरे कामो को छिपा लेता है-ग्राउण्ड
महावीर