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कि मनुष्य अहिंसा-धर्म की जय-जय बोले और रहन-सहन, खान-पान का शोधन करता रहे और समझता रहे कि वह अहिंसा-धर्मी हो गया । अपने भीतर की जीवन-तर्ज उसे समाज-जीवन में उतारनी होगी, तभी अहिंसा की साधना मे वह सफल हो सकेगा । यो हम देखें तो पायेंगे कि महावीर और गाधी एक ही सिक्के की दो बाजुएँ हैं । महावीर ने आत्मबोध दिया और गाधी ने समाज-बोध । बात बनेगी ही नही जब तक आत्म-बोध और समाज-बोध एक ही दिशा के राही नहीं होगे । महावीर के अनुयायियो पर एक बडी जिम्मेदारी गाधी ने डाली है। महावीर के अनुयायी अच्छे मनुष्य है-जीव-दया पालते हैं, करुणा और प्रेम के उपासक हैं, सयमी हैं, व्रती हैं, त्याग की साधना करते हैं, धर्माल है-इतना करते हुए भी खडित मनुष्य हैं।
अपनी व्यक्तिगत परिधि से बाहर समाज-जीवन में आते ही वे टूट जाते है । वहा उनकी सारी जीव-दया समाप्त है, सारा सयम बह जाता है, त्याग का स्थान सग्रह ले लेता है, स्वार्य-तृष्णा-सत्ता उन पर हावी हो जाती है और तब अहिंसा महज़ एक चिकत्ती-'लेबल' रह जाती है । अहिंसा तो एक साबित मनुष्य के जीवन की तर्ज है-उसके भीतर के, बाहर के जीवन की। महावीर और गाधी को जोड दे तो यह बाहर-भीतर की विरोधी तर्जे समाप्त होगी और मनुष्य अहिंसा का सच्चा पथिक बन सकेगा।
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जीवन मे?