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भी नहीं करते । प्रतिमा खडित नही चलेगी, तो मनुष्य कैसे खडित चलेगा और मनुष्य साबित तभी बनेगा जब वह भीतर-बाहर का जीवन सहज बनाये। अहिंसा की साधना में यह एक धीर-गम्भीर, कठिन और लम्बा आरोहण है । उतना सरल नहीं, जितना व्यक्तिगत साधना का मार्ग है। 'एकला चलो रे' की भावना गुरुदेव टैगोर को बल दे सकी, नोआखाली में गाधी अकेला ही शान्ति यात्रा पर चल पडा था । समाज-जीवन यदि पशु-बल से घिरा हुआ है और उसी पर आधारित है तो मनुष्य कितना ही मदिर-मसजिद की आराधना में लगा रहे और ध्यान-धारणा करता रहे, अपने-आपको साबित नहीं रख सकेगा। रख पाया ही नही-इसीलिए तो वह टूटकर दो समानान्तर रेखाओ पर दौड रहा है। गाधी का विस्फोट
इस दृष्टि से देखे तो महावीर के बाद लगभग ढाई हजार साल के अन्तर पर एक दूसरा विस्फोट गाधी ने अहिंसा के क्षेत्र में किया। उसने समाज-जीवन को बदलने का बीडा उठाया । गुलामी से मुक्ति, शोषण से मुक्ति, भय से मुक्ति । डरा हुआ मनुष्य कौन-सी धर्म-साधना कर सकता है ? कायर की अहिंसा 'अहिमा' नहीं है । ससार गाधीजी की इस साधना का प्रत्यक्षदर्शी है। निहत्थे लोगो ने महज़ अपने आत्मबल से साम्राज्य का झडा झकाया है, उसकी तोपो के मुंह मोडे है । बहके हुए इन्सानो के सामने बह महात्मा अपना सीना ताने अडा रहा। लोगो के मन बदले। उसने आग गलती उज्वालामुखी धरती पर प्रेम के बीज बोये-उगाये।
मनुष्य को, सत्ताधीशो को और मनुष्य के समुदायो को जीतने में उसने शरीर-बल का आधार लिया ही नही। मेरी कष्ट-सहिष्णुता आपके दिल को पिघलायेगी, मेरा त्याग आपके लालच को रोकेगा, मेरा सयम आपकी अफलातूनी पर बदिश लायेगा। आप बहक रहे हैं, मैं मर मिटूंगा।
जीवन में?