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हिंसाओ पर नियत्रण पाने में लगे हुए हैं ।
दूसरी ओर, जैसे साधक को बाहर का जीवन नहीं छू रहा, वैसे ही समाज को साधक की साधना नही छू पा रही है । समाज उसे महात्मा, महामानव, महापुरुष और तपोपूत की सज्ञा देकर चरण छू लेता है और अपने हिंसक जीवन के मार्ग पर अबुझ दौड रहा है । राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, महावीर, मुहम्मद जैसे महाप्रभु आये, और साधुमना लोगो की लम्बी जमात हमारे बीच आयी, रही, हमे उपदेश देती रही, सिखावन दे गयी और खुद उन पर चलकर अहिंसा का पाठ पढा गयी कि मनुष्य के जीवन की यही तर्ज है-इसे खोकर वह मनुष्य नहीं रहेगा, लेकिन दुर्भाग्य कि मनुष्य ने अपने जीवन की दो समानान्तर पद्धतिया बना ली। भीतर से वह अहिंसा का पथिक है और बाहर समाज मे वह वस्तु-धनसत्ता, पशुबल और अहकार पर आधारित है।
गाधी ने इस उलझन को समझा। कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा लगाये तो नम्र होकर दूसरा गाल उसकी ओर कर देने से तुम्हारा अहकार तो गलेगा, लेकिन महज इस व्यक्तिगत साधना से समाज नही बदलेगा। समाज को अहिंसा की ओर ले जाना हो तो दिन-रात समाज मे चलने वाले शोषण, अपमान, जहालत और सत्ता की अन्धाधुन्धी से लोहा लेना होगा । अन्याय का सामना करना होगा । तब तक सामाजिक या राजनैतिक अन्याय के प्रतिकार का एक ही मार्ग दुनिया ने जाना था-बल
और बल-प्रयोग । विधि-विधान, दण्ड, जेल, फौज, युद्ध और न्यायलय भी इसी विचार को पोषण देने वाले उपकरण हैं। हजारों सालो से मनुष्य ने बल की सत्ता का खुलकर प्रयोग किया है। मनुष्य, मनुष्य का बदी रहा है, बल के सामने वह पगु है, सत्ता ने उसे भयभीत बनाया है, वस्तुओ ने उसे तृष्णा दी है और वह अपने आप मे ही विभाजित हो गया है। ए ब्रोकन मैन-एक टूटा हुआ आदमी । उसने अपने आत्म-मार्ग के लिए
जीवन में?