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हिमायती समाज कापा । लेकिन महावीर अपनी वीरता में नहीं चुके । उनका अहिंसा-धर्म मानव-धर्म के रूप में प्रकट हुआ था । उन्होने तो मनुष्य के बनाये चौखटो और घेरो से अहिंसा-धर्म को बाहर निकाला था। मनुष्य का धर्म वह है ही नहीं जो उसने पंथ, डॉम्मा, जाति या कौम के नाम से स्वीकारा है। उन्होने मनुष्य का असली धर्म मानव-मात्र के हाथ में थमाया । 'आत्मधर्म'-आत्मा को पहचानो, जाति भूलो, कुल भूलो, स्त्री-पुरुष-भेद भलो । मनुष्य अगर मनुष्य है तो अपनी आत्मा के कारण है।
जैसे हिंसा उसके जीवन की तर्ज नही है, उसी तरह धर्म-जाति वर्गलिग आदि कठघरे भी मनुष्य के जीवन की तर्ज नहीं हैं । महावीर मानवधर्म के हिमायती थे। मनुष्य अपना धर्म छोडकर और कौन-सा धर्म अपनाएगा? उसका धर्म यही है कि वह सम्यक बने । मनष्य के जीवन की कोई सहिता हो सकती है तो केवल तीन सहिताएं हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य । 'ही' और 'भी'
उन्होने मनुष्य के हाथ में एक और कसौटी रख दी। मनुष्य जो देखता है, सुनता है, समझता है और खोजकर लाता है, उसके परे भी कुछ है। अपने ही ज्ञान, अनुभव और अहकार में डूबा मन 'ही' पर टिक जाता है। समझता है उसने जो देखा-पाया-जाना वही तो सच्चा है, लेकिन इस परिधि के बाहर भी कुछ है जिसे और कोई देख, परख सकता है। मनुष्य की बुद्धि को इस 'भी' पर टिकाने में महावीर ने गहरी साधना की । विज्ञान-युग मे आइन्स्टीन ने इस थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी-सापेक्षवाद को प्रयोगशाला में सिद्ध कर दिखाया है। मनुष्य को सहज बनाने मे, नम्र बनाने मे, उसकी बुद्धि को खुली रखने मे, उसे अहकार से बचाने मे और इस व्यापक जगत का सही आकलन करने में यह सापेक्षवाद बडे महत्त्व का तत्त्व है।
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जीवन मे?