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जीवन की राह नही बदली तो सृष्टि के महानाश का कलक उसके सिर लगने वाला है । कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि अपनी झक मे हमने धरती का पोषण करने वाले वेशकीमती कीट-पतंगो का नाश कर दिया है, यम्य जातियो की बहुत सी उपयोगी नस्लें समाप्त है, वनस्पति पर इतने फरसे गिरे कि शस्य - श्यामला धीरे-धीरे नग्न हो चली है । परिणाम सामने है - रेगिस्तान हर वर्ष बढ़ रहे है, पीने का पानी कम होता जा रहा है, धरती की उपजाऊ परते बह-बह कर समुद्र से मिल रही हैं, हम अन्न की कमी महसूस कर रहे है । करोडो भ्रूण ( एम्ब्रियो) की हत्या करने के बावजूद भी हमारी आबादी लगभग ढाई गुना बढ गयी है। इस बोझ को धरती सहने के लिए तैयार नही है । परिस्थिति-विज्ञान ( इकॉलॉजी) का विद्यार्थी आपको एक सास में कई-कई बाते गिना देगा । हमने कितने खनिज पदार्थ खोद लिये हैं, कितना-कितना रोज नष्ट कर रहे हैं, हमारी एकएक आवश्यकता की पूर्ति में इतनी शक्ति खर्च हो रही है कि हमारे सारे प्रकृति - भण्डार ची बोल गये है । जिस सभ्यता के पखो पर हम सवार है, वह अब लडखडाती दिखायी देती है। हालत यह हुई है कि करुणा के उपासक के पास अपने ही पेट की ज्वाला बुझाने को अन्न नही है, शाति के पुजारी की दुनिया कोलाहल से भर गयी है, वह जीव दया की स्थिति मे ही नही है- -स्वयं दया का पात्र है ।
खुदगर्जी
उसे अपने अस्तित्व (एक्जिस्टेन्स) की चिन्ता है । एक अच्छे स्तर की जिन्दगी । जो स्तर आपको प्राप्त है उससे ऊचा मुझे चाहिए । छोनूंगा आपसे - या आप जहा से छीनकर लाये है, मैं भी वहा से छीन झपट कर लाऊगा । मेरा सारा ध्यान अपने बढिया अस्तित्व के लिए चीजे बटोरने मे लग गया है, अधिकार प्राप्त करने में लग गया है । कोई अन्त ही नही है— होड-ही-होड है । ऐसा नही करता हूँ तो मेरा अस्तित्व खतरे मे पडता है । इस खुदगर्जी (सेल्फ एक्जिस्टेन्स) और उच्च जीवन-स्तर की जीवन मे ?
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