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मनुष्य के जीवन में बहुत गहरे नहीं उतरेगी। विज्ञान के क्षेत्र में आइस्टीन ने भी यही दृष्टि प्रदान की- थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी - सापेक्षता ।
विज्ञान की दृष्टि
आप एक पुल पर चढ़ रहे है। बाये हाथ पर एक मकान है - आप कहते हैं- मकान मेरे बाये हाथ पर है। सामने से कोई आ रहा है और उसे वही मकान दाये हाथ पर दिखायी देता है । दोनो के सदर्भ बदल गये हैं, इसलिए उस बदले हुए सदर्भ मे दोनो ठीक है ।
बालक तीसरी मंजिल पर बैठा हुआ है। मा नीचे से कहती है बच्चा ऊपर है । पिता पाचवी मंजिल पर अध्ययन कक्ष में बैठे है और कहते हैं बच्चा नीचे है । बच्चा तो जहा था वही है पर मा के लिए वह ऊपर है और पिता के लिए नीचे है ।
रेल के यात्री को रास्ते मे गडे टेलीफोन के खम्भे दौडते नजर आते है । पर खम्भे कहा दौड रहे है ? रेल में बैठा हुआ वह खुद दोड रहा है, पर उसे लगता है खम्भे भी दौड रहे है । सापेक्षता का यह अन्तर छोटीछोटी घटनाओ मे हम रोज-रोज महसूस करते है । और हमे वह मान्य है । यह तो एक गृहस्थ की - साधारण मनुष्य की बात हुई । पर आइन्स्टीन विज्ञान - जगत् को रिलेटिविटी - सापेक्षता के मामले मे बहुत गहरे ले गये । उन्होने सिद्ध किया कि मास, टाइम और स्पेस- द्रव्यमान, समय और अन्तरिक्ष पूर्ण नही है - एब्सोल्यूट नही है । सदर्भ-भेद के कारण उनमे अन्तर पडता है। एक और पहलू है, वह है गति-वेग-वेलासिटी । गति की तीव्रता सारा सदर्भ ही बदल देती है और जो तथ्य हमारी कल्पना में है उससे अलग कोई और तथ्य सामने आता है ।
हवाईजहाज से आपका मित्र एक सिक्का गिराता है और देखा है कि वह सीधा नीचे जा रहा है । पर आप नीचे धरातल पर खड़े हुए सिक्के जीवन मे ?
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