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ने अनेकान्त की दृष्टि इसलिए मनुष्य को दी कि वह यह जाने कि सत्य 'अनन्तधर्मा' है । वस्तु के अनेक गुण है । उसकी पर्यायें बदलती हैं। समय और स्थान के अन्तर से भी उसका रूप स्वरूप और सन्दर्भ बदलता है । अभिव्यक्ति की भी मर्यादाएँ हैं। आप जितना देख पा रहे हैं, उतना कह ही नही पाते। और मैंने बडी मेहनत से जो सत्य ढूंढा है वह भी पूर्ण नही है । प्रत्येक द्रव्य पर काल, गुण, गति, समय का प्रभाव पडता है और इसी कारण मनुष्य एक ही बार मे सारे पहलू नही जान पाता । सत्य का कोई एक पहलू ही उसके हाथ लगता है, अन्य सारे पहलू उसकी दृष्टि से ओझल रह जाते हैं । महावीर की यह अनुभूति जो उन्हे जीवन के क्षेत्र मे मिली, वही अनुभूति विज्ञान के क्षेत्र मे वैज्ञानिको को हुई है । आइन्स्टीन ने खूब खोज की और वे पूरे विज्ञान- जगत् को 'थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी - सापेक्षता के सिद्धान्त' में गहरा ले गये । एक बार चक्षु खुल गये तो विज्ञान को गति मिल गयी और उसकी ऊर्जा हजार-हजार गुनी होकर पूरे ब्रह्माण्ड को देखने-परखने लगी | विज्ञान को विराट् विश्व-दर्शन का हौसला मिला है।
भौतिक जगत् में सापेक्षता के पखों पर चढकर जो मनुष्य चाद को देख भाया और मंगल को छूने जा रहा है, वही श्रात्म जगत् मे इतना पगु कैसे रह गया ? अपनी काया से आगे उसे कुछ सूझता क्यो नही ? उसके तार पूरी सृष्टि से जुडने चाहिए थे। किसी और की पीठ पर पडने वाले कोडो की पीडा अकेले रामकृष्ण को ही क्यो हुई ? अपने चारो ओर फैल रही वेदनाओ से आप - हम सब अहिसा धर्मी पसीजते क्यो नही २ हम इतने असहिष्णु क्यो है ? आपका दर्द मुझे क्यो नही सालता ? हमारी सवेदनशदिन 'पेरेलाइज --- गतिहीन' हो गयी है । करुणा पिघलती ही नही । मै अपने ही इर्द-गिर्द हूँ — आप तक नही पहुचता । और यही आकर अहिंसा का रथ रुक गया है । महावीर की अहिंसा-साधना इस बात के लिए नही थी कि आपके हाथ से लाठी छूट जाए, आप किसी का हनन नही करे, आदमी तो क्या जीव-जन्तु को भी नहीं मारे । आपके मुँह का कौर निरामिष
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महावीर