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चित्तमलो का त्याग है, तृप्णा का क्षय है, विराग स्वस्प तथा निरोप स्वरूप निर्वाण है।" वहाँ पहुँनने मे उसके आयवो का क्षय हो जाता है।
और यदि आश्रव-क्षय नही भी होता, तो उसी धर्म-प्रेम के प्रताप मे पहले के पाँच वन्धनो का नाग कर अयोनिज देवयोनि मे उत्पन्न होता है। वही उसका निर्वाण होता है-फिर उस लोक से लौट कर ससार में नहीं आता।
सभी 'आकिञ्चन्यायतनो' को पार कर 'नैव सजा-ना-सज्ञा-आयतन'को प्राप्त हो विहरता है। मभी 'नवसना न असज्ञा-आयतन'को पार कर "सज्ञा की अनुभूति के निरोध' को प्राप्त कर विहरता है।
भिक्षुओ, जव (भिक्षु) भव वा विभव किसी के लिए भी न प्रयत्न करता है, न इच्छा करता है, तो वह लोक में (मै, मेरा करके) कुछ भी ग्रहण नहीं करता। जव कुछ ग्रहण नहीं करता तो उसको परिताप भी नही होता। जव परिताप नहीं होता तो वह अपने ही निर्वाण पाता है। उसको ऐसा होता है कि जन्म-(मरण) जाता रहा, ब्रह्मचरियवास (का उद्देश पूरा) हो गया, जो करना था कर लिया, अव यहाँ के लिए शेप कुछ नहीं रहा।
वह सुख-वेदना को अनुभव करता है, दुःख वेदना को अनुभव करता, अदुख-असुख वेदना को अनुभव करता है। वह उस वेदना को अनित्य समझता है, अनासक्त रहकर ग्रहण करता है, उसका अभिनदन नहीं करता, वह उसका अनुभव अलग रह कर ही करता है। वह समझता है कि शरीर -छटने पर, मरने के बाद, जीवन के परे अनासक्त रहकर अनुभव की गई यह वेदनाये यही ठडी पड जायेगी।
जिस प्रकार भिक्षुओ, तेल के रहने से, वत्ती के रहने से दीपक जलता है और उस तेल तया वत्ती के समाप्त हो जाने तथा दूसरी (नई तेल-वत्ती) के न रहने से दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार भिक्षुओ, शरीर छूटने पर, मरने के वाद, जीवन के परे, अनासक्त रहकर अनुभव की गई यह वेदनाये यही ठडी पड जाती है।