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दुःख निरोध आर्य-सत्य
दी २२ भिक्षुओ, दुख के निरोव के बारे मे आर्य-सत्य क्या है ?
उसी तष्णा से सम्पूर्ण वैराग्य, उस तृष्णा का निरोव, त्याग, परित्याग, उस तष्णा से मुक्ति अनासक्ति-यही दुख के निरोव के बारे में आर्य-1 सत्य है।
किस विषय मे यह तृष्णा प्रहीण करने से प्रहीण होती है, निरुद्ध करने से निरुद्ध होती है ? ससार मे जो प्रिय-कर है, ससार मे जिसमे मजा है, उसीमे यह तप्णा प्रहीण करने से प्रहीण होती है, उसीमे निरोध करने
से निरुद्ध होती है। स १२७ भिक्षओ, ससार मे जो कुछ भी प्रिय-कर लगता है, ससार मे जिसमे
मजा लगता है, उसे चाहे पिछले समय के, चाहे अव के, चाहे भविष्य के, जो भी श्रमण-ब्राह्मण दुख करके समझेगे, रोग करके समझेगे, उससे डरेगे,
वही तष्णा को छोड सकेगे। इ ९६ काम-तृष्णा और भव-तृष्णा से मुक्त होने पर, प्राणी फिर जन्म ग्रहण
नहीं करता। क्योकि तप्णा के सम्पूर्ण निरोध से उपादान निरुद्ध हो जाता, है। उपादान निरुद्ध हुआ, तो भव निरुद्ध । भव निरुद्ध हुआ तो पैदाइश निरुद्ध । पैदा होना निरुद्ध हुआ, तो बूढा होना, मरना, शोक-करना, रोवापीटना, पीडित होना, चिन्तित होना, परेशान होना-यह सब निरुद्व हो जाता है। इस प्रकार इस सारे के सारे दुख-स्कन्ध का निरोध
होता है। स २१-३ भिक्षुओ, यह जो रूप का निरोव है, उपगमन है, अस्त होना है, यही