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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः।
ग्राह्यम्न योग्य है
__ शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। एतत्य
किम् कैसे दृश्यम् दृश्य
पश्यति देख सकता है कि स्वभावात् स्वभाव से ही
इदम्य ह न किञ्चन कुछ नहीं है
ग्रहण करने + इति ऐसा जानानः जानने वाला है
च और __ +या जो
इदम् यह सः धीरधीः वह ज्ञानी
त्याज्यम्=त्यागने-योग्य है ॥
भावार्थ। यह जो दृश्यमान प्रपंच है, सो सब दृश्य होने से शुक्ति में रजत की तरह मिथ्या है। अर्थात् जैसे शुक्ति में रजत दृश्य भी है और मिथ्या भी है, वैसे यह प्रपंच भी दृश्य होने से मिथ्या है-इस अनुमान-प्रमाण करके यह जगत् मिथ्या सिद्ध होता है, ऐसा जिस विद्वान् ने निश्चय कर लिया है, वह धीर पुरुष ऐसा कब देखता है कि यह मेरे को ग्रहण करनेयोग्य है, यह मेरे को त्यागने-योग्य है, किन्तु कदापि नहीं देखता है।
अब इस विषे हेतु को आगेवाला वाक्य करके कहते हैं ।। १३ ।।
मूलम् । अन्तस्त्यक्त कषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः । यदृच्छयाऽऽगतो भोगो न दुःखाय च तुष्टये ॥ १४ ॥