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तीसरा प्रकरण । के संग्रह करने में कैसे प्रीति होती है ? अर्थात् आत्मज्ञानी होकर फिर भी तू धनादिकों में प्रीतिवाला दिखाई पड़ता है, इसमें क्या कारण हैं ? ॥ १ ॥
मुनि के प्रश्न के उत्तर को, मुनि से सुनने की इच्छा करके, उससे आप ही प्रश्न पूछते हैं
मूलम् । आत्माऽऽज्ञानादहो प्रीतिविषय भ्रमगोचरे । शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविनमे ॥२॥
पदच्छेदः । आत्माऽऽज्ञानात्, अहो, प्रीतिः, विषयभ्रमगोचरे, शुक्रः, अज्ञानतः, लोभः, यथा, रजतविभ्रमे ॥ शब्दार्थ ।। अन्वयः ।
शब्दार्थ। अहो आश्चर्य है कि
यथा जैसे
शुक्तेः सीपी के । अज्ञान से
अज्ञानतः अज्ञान से विषयभ्रम विषय के भ्रम रजतविभ्रमे रजत की भ्रांति में गोचर । के होने पर
लोभः लोभ होता है । प्रीतिः-प्रीति होती है
भावार्थ। .. प्रश्न हे भगवन् ! आत्मज्ञान के प्राप्त होने पर धनादिकों के संग्रह करने में क्या दोष है ?
उत्तर-हे शिष्य | विषयों में अर्थात् स्त्री पुत्र धनादिकों में जो प्रीति होती है, वह आत्मा के स्वरूप के अज्ञान
अन्वयः ।
आत्मऽऽज्ञानात- आत्मा के