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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । मयि, अनन्त, महाम्भोधौ, चित्तवाते, प्रशाम्यति, अभाग्यात्, जीववणिजः, जगत्पोतः, विनश्वरः ।। अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः।। अनन्त महाम्भोधौ अपार समुद्र-रूप अभाग्यात अभाग्य से मयि-मुझ विषे
(जगत्-रूपी
जगत्पोतः= 2 नौका अर्थात् at
। शरीर प्रशाम्यति के शान्त होने
विनश्वरः नाश हुआ है ॥ जीव-रूपी
शब्दार्थ ।
चित्तवाते चित्त-रूपी पवन
पर
जीववणिजः- वणिक् के
भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि मुझ अनंत महान् में जब संकल्पविकल्पात्मक मन-रूपी वायु शान्त हो जाता है, अर्थात् जब मन संकल्पादिकों से रहित होता है, तब जीव-रूपी व्यापारी की शरीर-रूपी नौका प्रारब्धकर्म-रूपी नदी के क्षय होने पर नाश हो जाती है ।। २४ ।।
मूलम। मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्य जीववीचयः । उद्यन्ति ध्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः ॥ २५ ॥
पदच्छेदः । मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, आश्चर्यम्, जीववीचयः, उद्यन्ति, घ्नन्ति, खेलन्ति, प्रविशन्ति, स्वभावतः ।।