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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । प्रश्न-यदि संपूर्ण प्रपंच अवास्तविक माना जावे, तब वर्ण और जाति आदिकों का आश्रय जो स्थूलशरीर है, वह भी अवास्तविक ही होगा ? और शरीर को आश्रयण करके प्रवृत्त जो विधि-निषेध शास्त्र है, वह भी अवास्तविक ही होगा ? फिर उस शास्त्र द्वारा बोधन किये हुए जो स्वर्ग नरक हैं, वे भी सब अवास्तविक अर्थात मिथ्या ही होवेंगे ? फिर स्वर्गादिकों में राग, और नरकादिकों से भय भी मिथ्या होंगे । और शास्त्र ने जो बन्ध मोक्ष कहे हैं, वे भी सब मिथ्या ही होंगे ?
उत्तर-जनकजी कहते हैं कि शरीरादिक सब कल्पनामात्र ही हैं। सच्चिदानन्द-स्वरूप मुझ आत्मा का इन शरीरादिकों के साथ कौन सम्बन्ध है, किन्तु कोई भी सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि सत्य मिथ्या का वास्तविक सम्बन्ध नहीं बन सकता है और मेरा शरीरादिकों के साथ कोई भी प्रयोजन नहीं है । और जितने विधि-निषेध वाक्य हैं, वे सब अज्ञानी के लिये हैं, ज्ञानवान् का उनमें अधिकार नहीं है, इस वास्ते ज्ञानवान् की दृष्टि में शरीरादिक और विधिनिषेध सब अवास्तविक ही हैं ॥ २० ॥
मूलम् ।। अहोजनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम । अरण्यमिव संवृत्तं क्व रति करवाण्यहम् ॥ २१ ॥
पदच्छेदः। अहो, जनसमूहे, अपि, न, द्वैतम्, पश्यतः, मम, अरण्यम्, इव, संवृत्तम्, क्व, रतिम्, करवाणि, अहम् ।।