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________________ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ; यह जो त्रिपुटी-रूप है, सो भी वास्तव में नहीं है, किन्तु अज्ञान करके चेतन में ये तीनों प्रतीत होते हैं। वास्तव में चेतन का इनके साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं है । जो माया और माया के कार्य से रहित चेतन आत्मा है, सो मैं ही हूँ ।।१५।। मूलम् । द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेषजम् । दृश्यमेतन्मृषा सर्वमेकोऽहं चिद्रसोऽमलः ॥ १६ ॥ पदच्छेदः । द्वैतमूलम्, अहो, दुःखम्, न, अन्यत्, तस्य, अस्ति, भेषजम्, दृश्यम्, एतत्, मृषः, सर्वम्, एकः, अहम्, चिद्रसः, अमल: ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः । __ शब्दार्थ। .. अहो आश्चर्य है कि एतत्-यह द्वैत है मूलकारण सर्वम्-सब द्वैतमूलम्- 1 जिसका, ऐसा दृश्यम्-दृश्य यत्-जो मृषा-झूठ है दुःखम् दुःख है तस्य-उसकी अहम्-मैं भेषजम् ओषधि एक: एक अद्वैत अन्यतः कोई अमलः शुद्ध अस्ति-नहीं है चिद्रसः चैतन्य-रस हूँ भावार्थ । प्रश्न-जब आत्मा निरञ्जन है, तब उसका दु:ख के
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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