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दूसरा प्रकरण ।
५७ ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता है और जगत् की प्रातिभासिक सत्ता है। ब्रह्म तीनों कालों में नित्य है और जगत तीनों कालों में अनित्य है, किन्तु केवल प्रतीति-मात्र ही है, इस वास्ते जगत् ब्रह्म का विवर्त्त है । जगत् की उत्पत्ति आदिकों के होने से ब्रह्म का एक रोवाँ भी नहीं बिगड़ता है अर्थात् ब्रह्म की किञ्चिन्मात्र भी हानि नहीं होती है ब्रह्मा से लेकर चींटीपर्यन्त जगत् के नाश होने पर भी ब्रह्म ज्यों का त्यों एकरस रहता है, वही ऐसा पारमार्थिक स्वरूप है ॥ ११ ॥
मूलम्। अहो अहं नमो मह्यमेकोऽहं देहवानपि । क्वचिन्नगन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः ॥१२॥
पदच्छदः । अहो, अहम्, नमः, मह्यम्, एक, अहम्, देहवान्, अपि, क्वचित्, न, गन्ता, न, आगन्ता,व्याप्य, विश्वम्,अवस्थितः ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । अहम्-मैं
न क्वचित्-न कहीं अहो आश्चर्य-रूप हूँ
गन्ता जानेवाला हूँ मह्यम्=मेरे लिये नमः नमस्कार है
न क्वचित् न कहीं अहम् =मैं
आगन्ता-आनेवाला हूँ देहवान्देहधारी होता हुआ
विश्वम्-संसार को अपि-भी
व्याप्य आच्छादित करके एक: अद्वैत हूँ
अवस्थितः स्थित हूँ
भावार्थ। प्रश्न-आत्मा अनेक प्रतीति होते हैं, क्योंकि प्रत्येक देह