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दूसरा प्रकरण ।
५५ युक्तियों से भी परिणामवाद और आरम्भवाद सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि घट मत्तिका का परिणाम नहीं है और न स्वर्ण का परिणाम कुण्डल हो सकते हैं। उत्पत्ति-काल में भी घट मृत्तिका-रूप ही है, गोलाकार उसका रूप और घट ये दोनों नाम कल्पित हैं । यदि घट से मृत्तिका निकाल दी जावे, तब घट का कहीं पता नहीं लग सकता है, अतएव घट मिथ्या है । इसी तरह स्वर्ण के कुण्डल भी मिथ्या हैं। घट
और कुण्डल भी मृत्तिका का विवर्त्त है, क्योंकि मृत्तिका और स्वर्ण ही अन्य रूप से घट और कुण्डल प्रतीत हो रहे हैं।
अतएव व्यवर्त्तवाद ही ठीक है । इसी तात्पर्य को लेकर जनकजी कहते हैं कि यह सारा जगत् मुझसे ही उत्पन्न होता है और फिर मुझसे ही लय हो जाता है। जैसे मृत्तिका से घट उत्पन्न होता है और फिर मृत्तिका में ही लय हो जाता है।
प्रश्न-इसमें कोई वेदवाक्य भी प्रमाण है ?
उत्तर-यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, इति श्रुतेः ।
अर्थ-जिस आत्मब्रह्म से ये सब भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिस ब्रह्म की सत्ता करके उत्पन्न होकर जीते हैं और फिर सब मर करके जिसमें लय हो जाते हैं, उसी को तुम अपना आत्मा जानो । यह वेद-वाक्य भी प्रमाण है ॥१०॥
मूलम् । अहो अहं नमो मह्यं विनाशी यस्य नास्ति मे । ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगन्नाशेऽपि तिष्ठतः ॥ ११ ॥