________________
दूसरा प्रकरण |
मूलम् ।
अहो निरञ्जनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः । एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः ॥१॥
अहम् =मैं निरञ्जनः = निर्दोष हूँ शान्तः शान्त हूँ
10:1
पदच्छेदः ।
अहो निरञ्जन:, शान्तः, बोधः, अहम, प्रकृतेः परः, एतावन्तम्, अहम्, कालम्, मोहेन, एव, विडंबितः ।।
अन्यवः ।
शब्दार्थ | अन्यवः ।
बोधः-बोध रूप हूँ प्रकृते = प्रकृति से
परः = परे हूँ
अहो आश्चर्य है कि अहम् = मै
एतावन्तम् = इतने
शब्दार्थ
कालम् = काल पर्यन्तु
मोहेन = अज्ञान करके एव = निःसन्देह विडंबितः = ठगा गया हूँ
भावार्थं ।
अष्टावक्रजी के उपदेश से जनक जी को आत्मा का साक्षात्कार जब उदय हुआ, तब जनकजी अपने चेतन स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार करके अपने अनुभव को प्रकट करते हुए वाधितानुवृत्ति से पूर्व प्रतीत हुए मोह के स्मरण को बड़े आश्चर्य के साथ प्रकट करते हैं
मैं निरंजन अर्थात् संपूर्ण उपाधियों से रहित एवं शान्तस्वरूप होकर, अर्थात् संपूर्ण विकारों से रहित होकर, तथा प्रकृति अर्थात् माया-रूपी अंधकार से भी परे होकर, और