________________
३६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि संसारमायापरिवजितोऽसि । संसारस्वप्नस्त्यज मोहनिद्रां मग्दालसा वाक्यमुवाच पुत्रम्॥१॥
अर्थात् हे तात ! तू शुद्ध है, ज्ञान-स्वरूप है, माया-मल से तू रहित है, तू संसार-रूपी असत् माया नहीं है, संसाररूपी स्वप्न मोह-रूपी निद्रा करके प्रतीत हो रहा है, इसको तु त्याग दे । इस प्रकार माता के उपदेश से वे जीवनमुक्त हो गये।
हे जनक ! तू भी ऐसा विचार करके संसार में जीवन्मुक्त होकर विचर ।। १६ ॥
मूलम् । निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः । अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः ॥ १७ ॥
पदच्छेदः। निरपेक्षः, निर्विकारः, निर्भरः, शीतलाशयः, अगाधबुद्धिः, अक्षुब्ध, भव, चिन्मात्रवासनः ।। अन्वयः।
अन्वयः।
शब्दार्थ । त्वम्-तू
अगाध । निरपेक्षः अपेक्षा रहित है
बुद्धिः । =अगाध चैतन्य बुद्धिरूप है
अविद्या के क्षोभ निर्विकारः विकार-रहित है
निर्भरः चिद्घन-रूप है शीतलाशयः- शान्ति और मुक्ति । का स्थान है
भव-निष्ठावाला हो।
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! निरपेक्ष हो अर्थात् षडूमियों से रहित हो।
शब्दार्थ
अक्षुब्धः= 1 से रहित हैं
चिन्मा
वासनः /-चैतन्य मात्र में