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निवेदन |
जब मैं पाठशाला में विद्याध्ययन करता था, तभी से हरिकीर्तन करने की, शुभ मार्ग पर चलने की असत् मार्ग के त्याग और सन्मार्ग के ग्रहण करने को मेरे मन में इच्छा उत्पन्न हुआ करती थी ।
जब मैं इन्सपेक्टर डाकखानेजात गोंडा और बहराइच का हुआ, तब गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कृत रामायण पढ़ने की ओर श्रीसत्यदेवजी स्वामी की कथा सुनने की अति रुचि उत्पन्न हुई । तदनुसार जो समय सरकारी काम करने से बचता था, उसमें भगवत् आराधन करने लगा ।
देव की इच्छा से कभी-कभी महात्मा पुरुषों का सत्संग हो जाता, और उनसे वेदान्त-शास्त्र की सूर्यवत् वाणी को सुनकर अन्तःकरण के अन्धकार को नाश करने लगा ।
जब मैं लखनऊ में असिस्टेण्ट सुपरिंटेंडेंट होकर आया, तब ईश्वर की कृपा से मेरे पूर्व-जन्म के शुभ कर्म उदय हो आये और पण्डित श्री १०८ श्रीयमुनाशङ्करजी वेदान्ती का दर्शन हुआ । उनके सरल एवं प्रीतियुक्त उपदेश से मेरे यावत् तमोमय अन्धकार थे सब नष्ट हो गये और मैं अपने शान्त, अद्वैत और निर्मल आत्मा में स्थित हो गया ।
जब पण्डितजी का देहान्त हो गया, तब अन्य अनेक वेदान्तविद् पण्डितों और संन्यासियों का संग रहा । उनमें श्री १०८ स्वामी परमानन्दजी का भी संग होता रहा और उसकी सदा पूर्ण कृपा बनी रही ।
जब मैं नैनीताल में पोस्टमास्टर था, तब यह इच्छा हुई थी कि वेदान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थों को पदच्छेद, अन्वय और शब्दार्थ के साथ सरल मध्यदेशीय भाषा में अनुवाद करूँ । मेरे इस सत्सङ्कल्प को परमात्मा ने पूरा किया, तदर्थ उस परब्रह्म परमात्मा को कोटिशः धन्यवाद ! ! !
हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत् हरिः ॐ तत्सत्
निवेदक-
लाला शिवदयालु सिहात्मज - जालिमसिंह