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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
मूलम् । जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति । ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते ॥ ९० ॥
पदच्छेदः । जानन्, अपि, न, जानाति, पश्यन्, अपि, न, पश्यति, ब्रुवन्, अपि, न, च, ब्रूते, कः, अन्यः, निर्वासनात्, ऋते ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । . निर्वासनात् वासना-रहित पुरुष से जानाति जानता है ऋते इतर
पश्यन-देखता हुआ अन्यः दूसरा
अपि-भी का कौन है
न पश्यति नहीं देखता है यः जो
च-और जानन्-जानता हुआ
ब्रुवन बोलता हुआ अपि भी
अपि-भी नम्नहीं
न ब्रूते नहीं बोलता है।
भावार्थ। जीवन्मुक्त विद्वान् पदार्थों को जानता हुआ भी नहीं जानता है, देखता हुआ भी नहीं देखता है, कथन करता हुआ भी नहीं कथन करता है, लोक-दष्टि करके जानता भी है, देखता भी है, सुनता भी है, परन्तु परमार्थ-दष्टि करके न देखता है, न सुनता है, न बोलता है, निर्वासनिक ज्ञानी के बिना दूसरा ऐसा कौन कर सकता है, किन्तु कोई भी नहीं कर सकता है। ९० ॥