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________________ अन्वयः। ३५६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । न, एव, प्रार्थयते, लाभम्, न, अलाभेन, अनुशोचति, धीरस्य, शीतलम्, चित्तम्, अमृतेन, एव, पूरितम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः। शब्दार्थ। धीरस्य-ज्ञानी का ___ लाभम् लाभ के लिये चित्तम्-चित्त प्रार्थयते-प्रार्थना करता है अमृतेन अमृत से पूरितम्-पूरित हुआ च और नम्न शीतलम्-शीतल है अतः एव-इसी लिये अलाभेन-हानि होने से एव-कभी । अनुशोचति शोच करता है । भावार्थ । जीवन्मुक्त ज्ञानी न लाभ की प्रार्थना करता है, और न अलाभ पर शोक करता है, किन्तु उसका चित्त परमानन्द-रूपी अमृत द्वारा ही तृप्त अर्थात् आनन्दित रहता है ॥ ८१ ॥ सःवह न शान्तं स्तौति निष्कामा न दुष्टमपि निन्दति । समदुःखसुखस्तृप्तः किञ्चित्कृत्यं न पश्यति ॥२॥ पदच्छेदः । न, शान्तम्, स्तौति, निष्कामः, न, दुष्टम्, अपि, निन्दति, समदुःखसुखः, तृप्तः, किञ्चित्, कृत्यम्, न, पश्यति ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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