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पहला प्रकरण ।
एक पुरुष का नाम बेवकूफ था और उसकी स्त्री का नाम फजीती था । एक दिन उसकी स्त्री उसके साथ लड़ाई झगड़ा करके कहीं चली गई। तदनंतर वह स्त्री खोजने के लिए जंगल में गया। वहाँ पर एक तपस्वी उसको मिला और उससे पूछा कि तू जंगल में क्यों घूमता है ? उसने कहा कि मैं अपनी स्त्री को खोजता हूँ। तब उस तपस्वी ने कहा कि तुम्हारी स्त्री का क्या नाम है ? और तुम्हारा क्या नाम है ? तब उसने कहा कि मेरा नाम बेवकफ है, और मेरी स्त्री का नाम फजीती है । तब उसने कहा "बेवकूफ" को फजीतियों की क्या कमती है ? जहाँ पर जावेगा, वहाँ पर उस बेवकफ को फजीती मिल जावेगी।
दाष्र्टात में जब तक जीव अज्ञानी मूर्ख बना है, तबतक इसको जन्म-मरण-रूपी फजीतियों की क्या कमती है। जब ज्ञानवान् होगा तब बंध से रहित हो जावेगा।
जनकजी कहते हैं कि हे भगवन ! नैयायिक लोग आत्मा का वास्तविक बंध-मोक्ष मानते हैं, उनका मानना ठीक है या नहीं ?
अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे राजन् ! नैयायिक आदिकों का कथन सर्व-युक्ति और वेद से विरुद्ध है। यदि आत्मा को वास्तविक बंध होता, तब उसकी निवृत्ति कदापि न होती; और साधन भी सब व्यर्थ हो जाते, पर ऐसा तो नहीं है, क्योंकि वेद उसकी निवृत्ति को लिखता है और आत्मा वास्तव में संसारी नहीं है । इसी में दस हेतुओं को दिखाते हैं
(१) अहंकार आदिकों का भी आत्मा साक्षी है, पर कर्ता नहीं है।