SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० भावार्थ | हे शिष्य ! मूढ़ पुरुष कहता है कि मैं भावना करता हूँ, मैं अभावना करता हूँ । इस प्रकार सर्वदा भावनाअभावना में ही आसक्त रहता है । क्योंकि उसको भावनाअभावना में अहंकार है । और जो अपने स्वरूप में निष्ठावाला है, उसकी दृष्टि भावना अभावना से रहित होकर सर्वदा अपने आत्मा में ही रहती है ।। ६३ ॥ मूलम् । सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्बालवन्मुनिः । न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्माणि ॥ ६४ ॥ पदच्छेदः । ३४० सर्वारम्भेषु, निष्कामः, यः, चरेत्, बालवत्, मुनिः, न, लेपः, तस्य, शुद्धस्य, क्रियमाणे, अपि, कर्मणि ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | यः =जो मुनि:- ज्ञानी बालवत् = बालकों की तरह निष्कामः = कामना - रहित होकर सर्वारम्भेषु={ अन्वयः । शब्दार्थ चरेत् = करता है तस्य उस शुद्धस्य = शुद्ध स्वरूप को farari | किये हुए कर्म में भी कर्मणिअपि सब क्रियाओं में आरम्भ लेपः न भवति = लेप नहीं होता है ॥ भावार्थ | जो विद्वान् बालक की तरह कामना से रहित होकर पहले जन्म के कर्मों के वश से अर्थात् प्रारब्ध-वश से सम्पूर्ण
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy