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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
भावार्थ |
मूढ़ पुरुष के इन्द्रियों के व्यापारों की निवृत्ति तो लोकदृष्टि करके अवश्य प्रतीत होती है, परन्तु वह निवृत्ति प्रवृत्ति ही है । क्योंकि उसके अहंकारादिक निवृत्ति नहीं हुए हैं और ज्ञानवान् की लोक-दृष्टि करके इन्द्रियों की प्रवृत्ति प्रतीत भी होती है, तो भी वह निवृत्ति रूप ही है, और मुक्ति-रूपी फल को देनेवाली है । क्योंकि उसमें अभिमान का अभाव है ॥ ६१ ॥
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मूलम् ।
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते ।
दे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता ॥ ६२ ॥ पदच्छेदः ।
परिग्रहेषु, वैराग्यम्, प्रायः, मूढस्य, दृश्यते, देहे, विगलिताशस्य, क्व, रागः, क्व, विरागता ||
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
अन्वयः ।
मूढस्य = ज्ञानी का
वैराग्यम् = वैराग्य
प्रायः = विशेष करके
परिग्रहेषु = गृह आदि में
दृश्यते = देखा जाता है
परन्तु परन्तु देहे देह में
.
विगलिताशस्य =
शब्दार्थ |
- गलित होगई है। आशा जिसकी . ऐसे ज्ञानी को
क्व = कहाँ राग := राग है च=और
क्व= कहाँ विरागता = वैराग्य है ॥