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अठारहवाँ प्रकरण । उन करके सत्कार किया हुआ न हर्ष को प्राप्त होता है। क्योंकि राग-द्वेष का हेतु जो मोह है, सो मोह उनमें नहीं है ।। ५५ ॥
मूलम् । संतुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते । तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते ॥५६ ॥
पदच्छेदः । सन्तुष्टः, अपि, न, संतुष्ट:, खिन्नः, अपि, न, च, खिद्यते, तस्य, आश्चर्यदशाम्, ताम्, ताम्, तादृशाः, एव, जानते ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । + ज्ञानी ज्ञानी पुरुष
अपि-भी + लोकदृष्टया-लोक-दृष्टि से
नहीं दुःख को संतुष्टतः सन्तोषवान् हुआ
। प्राप्त होता है अपि भी
तस्य-उसकी न-नहीं
ताम् ताम्-उस उस संतुष्टः संतुष्ट है आश्चर्यदशाम् आश्चर्य दशा को च और
तादृशा एव-वैसे ही ज्ञानी खिन्नः खेद को पाया हुआ | जानते-जानते हैं ।
भावार्थ । हे शिष्य ! लोक-दृष्टि करके खेद को प्राप्त हुआ भी वह खेद को नहीं प्राप्त होता है और लोक-दृष्टि करके हर्ष को प्राप्त हुआ वह हर्ष को नहीं प्राप्त होता है । ऐसे विद्वान् की आश्चर्यवत् लीला को विद्वान् ही जानता है, दूसरा नहीं॥५६॥