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पहला प्रकरण ।
देहाभिमानी कहे जाते हैं, और वे ही सदा बन्धायमान रहते हैं । और जो जाति और वर्गों के धर्मों को आत्मा में नहीं मानते हैं, किन्तु अपने आत्मा को असग, नित्य-मुक्त और शुद्ध मानते हैं, वे नित्य ही मुक्त हैं, क्योंकि हे राजन् ! शास्त्रों में दो दृष्टि कही गई हैं-एक तो शास्त्र दृष्टि, दूसरी लौकिक दृष्टि । शास्त्र-दष्टि से तो देहादि के चर्म के अभिमानी का नाम ही चमार है, क्योंकि अपने को चर्म का अभिमानी मानता है
"देहोऽहम्"
और जो चर्म के अभिमान से रहित है, वही अपने को देहादिकों से भिन्न, नित्य शुद्ध और बुद्ध मानता है, वहीं मुक्त है।
एवं लोग भी कहते हैं कि जैसी जिसकी मति अर्थात् बद्धि अन्तकाल में होती है, वैसी ही उसकी गति होती है। अर्थात् जैसा जिसका निश्चय होता है, वैसा ही उसको फल प्राप्त होता है अतएव हे राजन् ! तू भी अपने को शुद्ध, बुद्ध और मुक्त-रूप निश्चय कर ।।११।।
जनकजी कहते हैं कि हे भगवन् ! जीवात्मा को जो बन्ध और मोक्ष हैं, वे दोनों वास्तव में हैं ? या अवास्तविक हैं ? यदि बन्ध वास्तव में हो, तब तो उसकी निवृत्ति कदापि न होनी चाहिए ? यदि मोक्ष ही वास्तविक हो, तो जीव को बन्ध कदापि न होना चाहिए ?
इस शंका के उत्तर को आगेवाले वाक्य करके अष्टावक्रजी कहते हैं