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अठारहवाँ प्रकरण ।
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भावार्थ । जिस ज्ञानी धीर के चित्त की सब कल्पनाएँ नष्ट हो गई हैं, वह प्रारब्ध के वश कभी भोगों विष क्रीडा करता है, कभी प्रारब्धवश पर्वत और वनों में फिरा करता है, पर उसका चित्त सदा शान्त रहता है। क्योंकि वह आसक्ति कर्तृत्वाऽध्यास से रहित बुद्धिवाला है ।। ५३ ॥
मूलम्।
अन्वयः।
शब्दार्थ।
श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपति प्रियम् । दृष्टवा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना ॥ ५४ ॥
पदच्छेदः। श्रोत्रियम्, देवताम्, तीर्थम्, अंगनाम्, भूपतिम्, प्रियम्; दृष्ट्वा , संपूज्य, धीरस्य, न, का, अपि, हृदि, वासना ।।
___ शब्दार्थ । | अन्वयः।। श्रोत्रियम्=पण्डित को
प्रियम्-पुत्रादि को देवताम्-देवता को
दृष्ट्वा -देख करके तीर्थम-तीर्थ को
धीरस्य-ज्ञानी के संपूज्य-पूजन करके
हृदि हृदय में + च और
का अपि-कोई भी अंगनाम्-स्त्री को
वासना-वासना भूपतिम्-राजा को
न भवति नहीं होती है ।
भावार्थ । हे शिष्य ! जो श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ता हैं, उन विषे इन्द्र,