________________
२४
अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
नहीं होता है, और न उसमें उसकी आसक्ति होती है, किन्तु यावत् जगत् है, उस सबको मिथ्या जानता है । उस मिथ्यात्व के निश्चय का नाम ही जगत् का नाश है । यद्यपि स्वरूप से इसका कदापि नाश नहीं होता है, किन्तु यह अथाह रूप से सदा बना ही रहता है, हे जनक ! जिसने अपने आत्मा को सत्, चित् और आनन्द-रूप करके जान लिया है, वह फिर जन्म-मरण - रूपी बन्ध को नहीं प्राप्त होता है । हे जनक ! तू अपने को ही आनन्दरूप और परमानन्द बोध-स्वरूप अर्थात् ज्ञान-स्वरूप जान, और सुख से विचर ॥
प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञान एक है या अनेक हैं ? उत्तर- अज्ञान एक है ।
प्रश्न - जब अज्ञान एक है, तब एक अज्ञान के नाश होने से उसके कार्य जगत् का भी स्वरूप से ही नाश हो जाना चाहिए ?
उत्तर - यद्यपि अज्ञान एक ही है, तथापि उसके कार्य तन्मात्रा, और तन्मात्रा का कार्य अन्तःकरण-रूपी भाग अनन्त हैं । जैसे आकाश एक है, पर अनेक घट-रूपी उपाधियों के साथ वह अनेक भेद को प्राप्त हो रहा है । और जब घट- रूपी उपाधि नष्ट हो जाती है, तब वही घटाकाश महाकाश में मिल जाता है, वैसे ही जिस अन्तःकरण में ज्ञान - रूपी प्रकाश उदय होता है, वही अन्तःकरण नाश को प्राप्त हो जाता है, और वही जीव, जो अब तक बन्धन में था, मुक्त हो जाता है, बाकी सब बन्ध में पड़े रहते हैं ||
जैसे सोये हुए दस पुरुष अपने-अपने स्वप्नों को देखते हैं, और जिसकी निद्रा दूर हो जाती है, उसी का स्वप्न नष्ट