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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
रञ्जना अपि-अनुराग ही है
[ वैसा ही है इह इस संसार में
अर्थात् उसका यथा-जैसे
एवर
भोगकर्मानुजीवनम्-जीवन है
( सार है ।
भावार्थ । प्रश्न-जब जीवन्मुक्त कोई क्रिया नहीं करेगा, तब उसके शरीर का निर्वाह कैसे होगा ?
उत्तर-जीवन्मुक्त पुरुष की कोई क्रिया अपने संकल्प से नहीं होती है, और न कुछ उसको करने योग्य कर्म बाकी रहा है। क्योंकि उसको किसी पदार्थ में राग नहीं है, और राग के विना कोई कृत्य कर्म है नहीं, और राग-द्वेष का हेतु जो अविद्या है, वह उसकी नष्ट हो गई है। उसके शरीर की यात्रा प्रारब्धवश से होती है ।। १३ ।।
मूलम् । क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद्धयानं क्व मुक्तता। सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
पदच्छेदः । क्व, मोहः, क्व, च, वा, विश्वम्, क्व, तत्, ध्यानम, क्व, मुक्तता, सर्वसंकल्पसीमायाम्, विश्रान्तस्य, महात्मनः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । . संपूर्ण संकल्पों की सर्वसंकल्प-_
क्व-कहाँ सीमा में अर्थात्
मोह-मोह है
च और विश्रान्तस्य-विश्रान्त हुए
क्व-कहाँ योगिनः योगी को
विश्वम् संसार है
सीमायाम् । आत्मज्ञान में