SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | स्वराज्ये= राज्य में भैक्ष्यवृत्ती = भिक्षावृत्ति में लाभालाभे= { लाभ और अलाभ में जने= मनुष्यों के समूह में वाया अन्वयः । भावार्थ । क्व, धर्मः, क्व, च, विवेकता, इदम्, कृतम्, न , अन्वयः । इदम् = यह कृतम् = किया गया है वने वन में निर्विकल्प - स्वभावस्य इदम् =यह न कृतम् = नहीं किया गया है। = जीवन्मुक्त को स्वर्ग के राज्य मिलने पर भी न उसको हर्ष होता है, और भिक्षावृत्ति में न उसको विक्षेप होता है, और पदार्थ का लाभ और अलाभ दोनों उसको बराबर हैं, वन में रहे व घर में रहे, वह एकरस रहता है ।। ११ ।। योगिनः = योगी को विशेषः = कोई विशेषता न अस्ति नहीं है || मूलम् । क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकता । इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः ॥ १२ ॥ शब्दार्थ | अन्वयः । विकल्प - रहित शब्दार्थ | पदच्छेदः । वा, काम:, क्व, च, अर्थ:, क्व, इति, द्वन्द्वैः, मुक्तस्य, योगिनः ॥ शब्दार्थ | इति = इस प्रकार द्वै: से मुक्तस्य = छूटे हुए योगिनः योगी को
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy