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________________ अठारहवाँ प्रकरण । २७९ जैसे किसी पुरुष के कंठ में स्वर्ण का भूषण पड़ा है, तथापि उसके भ्रम के वश से ऐसा ज्ञान होता है कि मेरा भूषण कहीं खो गया है । यद्यपि वह भूषण उसको प्राप्त भी है, परन्तु भ्रम करके अप्राप्त की तरह प्रतीत होता है । वैसे ही यह आत्मा सर्व पुरुषों को नित्य प्राप्त भी है, पर अपने स्वरूप के अज्ञान होने से संकल्पों के वश से अप्राप्त की तरह हो रहा है । आत्मा विकल्पों से अतीत है अर्थात् मन के विकल्पों के अभाव हो जाने से जाना जाता है। एवं वह विकारों से भी रहित है, और उपाधियों से शून्य है और सदैव एकरस है ।। ५ ।। मूलम। व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः ॥ ६॥ पदच्छेदः । व्यामोहगावविरतौ, स्वरूपादानमात्रतः, वीतशोकाः, विराजन्ते, निरावरणदृष्टयः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। व्यामोहमात्र- विशेष मोह के वीतशोकाः शोक से रहित विरतौं । निवृत्त होने पर निरा- (आवरण रहित वरण- दष्टिवाले अर्थात् स्वरूपादान-_अपने स्वरूप के । दृष्टयः । ज्ञानी पुरुष मात्रतः । ग्रहणमात्र से ही विराजन्ते शोभायमान होते हैं । भावार्थ। प्रश्न-जब आत्मा नित्य ही प्राप्त है, तब फिर शास्त्र के
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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