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सोलहवाँ प्रकरण।
२४९ वृक्ष को हरियाली याने उसके हरे पत्ते कदापि उत्पन्न नहीं होते हैं।
दान्ति में जिस पुरुष के चित्त में अज्ञान का चिह्न बना है, उसको शान्ति कदापि नहीं होती है ॥ ९ ॥
मूलम् । यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा । न च योगी न वा ज्ञानी केवलं दुःखभागसौ ॥ १० ॥
पदच्छदः । यस्य, अभिमानः, मोक्षे, अपि, देहे, अपि, ममता, तथा, न, च, योगी, न, वा, ज्ञानी, केवलम्, दुःखभाक, असौ । अन्वयः। __ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। यस्य-जिसको
अभिमानः अभिमान है मोक्षे मोक्षविषे च-और
ज्ञानी ज्ञानी है देहे-देहविषे
च-और अपि भी
नम्न तथा वैसा ही
योगी वा-योगी है ममता-ममता है
केवलम् केवल असौ वह
__दुःखभाक्-दुःख का भागी है ॥
भावार्थ। __ अष्टावक्रजी कहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ, मैं त्रिकालदर्शी हूँ, मैं मुक्त हूँ इस प्रकार का जिसको अभिमान है, वह ज्ञानी नहीं है । जो कहता है मैं योगाभ्यासी हूँ, मैं नित्य ही