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खिद्यते-
खेद को प्राप्त
खिद्यत-1 होता है
तस्य-उस
२४२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । व्यापारे, खिद्यते, यः, तु, निमेषयोः, अपि, तस्य, आलस्यधुरीणस्थ, सुखम्, न, अन्यस्य, कस्यचित् ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः ।
शब्दार्थ। यः जो
आलस्य-_ / आलसीनिमेषो-_नेत्र के ढकने और धुरीणस्य । धुरीण को न्मेषयोः । खोलने के
अपि-ही व्यापारे व्यापार से
सुखम्-सुख है अन्यस्य-दूसरे कस्यचित्-किसी को
न-नहीं है । भावार्थ । व्यापार में अनासक्ति ही सुख का हेतु है । जो ज्ञानवान् जीवन्मुक्त पुरुष हैं, उनको नेत्र के खोलने और बंद करने में भी खेद होता है । जो ऐसा आलसी पुरुष है और सम्पूर्ण व्यापारों से रहित है, वही सुख को प्राप्त होता है । व्यापारवान को कभी भी सुख नहीं होता है। संसार में पूरुष को जितनी ही व्यवहार विषे अधिक प्रवृत्ति है, उतना ही उसको दुःख अधिक है । और जितना ही व्यवहार-प्रवृत्ति कम है, उतना ही उसको सुख अधिक है । क्योंकि वृत्ति की वृद्धि से दुःख की प्राप्ति, और वृत्ति की निवृत्ति से सुख की प्राप्ति होती है ।। ४ ॥
मूलम। इदं कृतमिदं नेति द्वन्दैर्मुक्त यदा मनः । धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत् ॥ ५॥