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पन्द्रहवाँ प्रकरण |
मूलम् ।
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किञ्चिद्वृदि धारय । आत्मा त्वम्मुक्त एवासिकिंविमृश्य करिष्यसि ॥ २० ॥ पदच्छेदः ।
त्यज, एव, ध्यानम्, सर्वत्र, मा, किञ्चित्, हृदि, धारय, आत्मा, त्वम्, मुक्तः, एव, असि, किम्, विमृश्य, करिष्यसि ॥
शब्दार्थ |
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
सर्वत्र एव = सब ही जगह ध्यानम् = मनन को
त्यजत्याग
हृदि हृदय में
किञ्चित् = कुछ
मा धारयन्मत धर
त्वम्=तू
अन्वयः ।
आत्मा
मुक्तः =
एव असि है
आत्मा
मुक्त रूप
+ त्वम्=तू
विमृश्य विचार करके किम् क्या करिष्यसि करेगा
२३७
भावार्थ ।
प्रश्न - हे गुरो ! अपने आनन्द-स्वरूप आत्मा में स्थिर होके विना ध्यान के बनता नहीं है, इस वास्ते ध्यान करना चाहिए । उत्तर- ध्यान का भी त्याग कर, क्योंकि ध्यान भी अज्ञानी के लिए कहा है । जिसको आत्मा का बोध नहीं हुआ है, भेदवाला वही ध्यान करे । ध्यान करना भी मन का ही धर्म है । तू तो आत्मा है, अनात्मा नहीं, सदा मुक्त रूप है । ध्यान के विचार से तेरे को क्या फल होगा, तू इनसे रहित है ॥२०॥
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां पञ्चदशं प्रकरणं समाप्तम् ।। १५ ।।