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२२८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ। अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे तात ! तुम चैतन्य स्वरूप हो । तुम्हारे में हेय और उपादेय अर्थात् त्याग और ग्रहण किसी वस्तु का भी नहीं बनता है, क्योंकि तुम्हारे से भिन्न यह जगत् नहीं है । कल्पित वस्तु अधिष्ठान से भिन्न नहीं होती है । उसका हेय और उपादेय कैसे हो सकता है ।।१२।।
मूलम्। एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वय । कुतो जन्म कुतः कर्म कुतोऽहंकार एवच ॥ १३ ॥
पदच्छेदः । एकस्मिन्, अव्यये, शान्ते, चिदाकाशे, अमले, त्वयि, कुतः, जन्म, कुतः, कर्म, कुतः, अहंकारः, एव, च ।। अन्वयः। शब्दार्थ। | अन्वयः।
शब्दार्थ । एकस्मिन्न्तुझ एक
जन्म कुतः जन्म कहाँ है अमले-निर्मल
कर्म कुतः कर्म कहाँ है अव्यये अविनाशी शान्त-शान्त
च एव और अहंकारः कुतः । अहंकार कहाँ से
चैतन्य-रूप आकाश
चिदाकाशे-में
भावार्थ। हे जनक ! सजातीय और विजातीय स्वगत-भेद से शन्य, नाश और विकार से रहित, चिदाकाश निर्मल तम्हारे स्वरूप में न जन्म है, न मरण है, न कोई कर्म है, न अहंकार