________________
२२०
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अन्वयः। शब्दार्थ | अन्वयः ।
शब्दार्थ। सर्वभूतेषु सब भूतों में
निरहंकार:=अहंकार-रहित आत्मानम् आत्मा को
च-और च-और
निर्मम्ममता-रहित सर्वभूतानि-सब भूतों को
त्वम्-तू आत्मनि आत्मा में
सुखी-सुखी विज्ञाय-जान करके
भव हो
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यंत संपूर्ण भूतों में कारण-रूप करके अनुस्यूत एक ही आत्मा को जानकर, और संपूर्ण भूत प्राणियों को आत्मा में अध्यस्त अर्थात् कल्पितमान करके अहंकार और ममता से रहित होकर तू सुख-पूर्वक विचर ।। ६ ।।
मूलम् । विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे । तत्त्वमेव न संदेहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव ॥ ७ ॥
पदच्छेदः । विश्वम्, स्फुरति, यत्र, इदम्, तरंगा, इव, सागरे, तत्, त्वम्, एव, न, संदेहः, चिन्मूर्ते, विज्वरः, भव ।। ____ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। यत्र-जिस स्थान में तरंग इव । समुद्र विषे तरंगों इदम्य ह
सागरे । की तरह विश्वम्-संसार
स्फुरति-स्फुरण होता है
अन्वयः।