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२१० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० नहीं फरती है, और बाहर से जो उन्मत्त की तरह स्वेच्छापूर्वक विहार करता है, वही ज्ञानी है । उसको ज्ञानी पुरुष ही जानता है, दूसरा अज्ञानी पुरुष नहीं जान सकता है ।। ४ ॥
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां चतुर्दशप्रकरणं समाप्तम् ।।