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________________ २०२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० द्वेष हैं, उनसे जो रहित है और प्रारब्धकर्मों के वशीभूत होकर विषयों का चिन्तन भी करता है, और भोगता भी है, उसको हानि-लाभ कुछ नहीं है। इसी में दृष्टान्त को कहते हैं___ जैसे निद्रा के वश जो पुरुष शून्यचित्त होकर सो रहा है उसको किसी पुरुष ने जगाकर उससे कहा कि तू इस काम को कर । वह जागकर उस काम को तो करता है, परन्तु अपनी इच्छा के अनुसार नहीं करता है, किन्तु दूसरे पुरुष की प्रेरणा करके वह काम को करता है। दान्ति। __ इसी प्रकार जो पुरुष शान्तचित्त है, वह भी प्रारब्धवश से विषयों को भोगता है, अपनी इच्छा से नहीं भोगता है और जैसे कोई पुरुष अपने आनन्द में बैठा है, किसी सिपाही ने आकर उसको बिगारी पकडकर उसके शिर पर गठरी रखवाया और वह पुरुष गठरी को उठाकर ले जाता है। यदि न उठावे या कहीं धर देवे, तो सिपाही उसके कमची मारे । वह अपनी खुशी से उठाकर नहीं ले जाता है, किन्तु दूसरे की प्रेरणा से वह उठाकर लिये जाता है, वैसे ही ज्ञानवान भी अपनी खशी से तो विषय-भोगों को नहीं भोगता है, परन्तु प्रारब्धरूपी सिपाही की प्रेरणा करके भोगता है, इसलिये उसको हानि-लाभ कुछ भी नहीं है ।। १ ।। मूलम् । क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यवः । क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा ॥ २ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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