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तेरहवाँ प्रकरण |
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ग्रहण - त्यागादिक हैं, उनके करने में शरीर को ही खेद होता है, और वाणी के कर्म जो सत्य मिथ्या भाषणादिक हैं, उनके करने में जिह्वा को खेद होता है, और मन के कर्म जो संकल्प - विकल्पनादिक का ध्यान धारणादिक हैं उनके करने में मन को खेद होता है, इसलिये शिष्य कहता है कि उन तीनों के कर्मों का त्याग करके मैं अपने आत्मानन्द में स्थित ।। २ ।।
मूलम् ।
कृतं किमपि नैव स्यादिति संचिन्त्य तत्त्वतः । यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वाऽऽसे यथासुखम् ॥ ३ ॥ पदच्छेदः ।
कृतम्, किम् अपि न, एव, स्यात्, इति, संचिन्त्य तत्त्वतः, यदा, यत्, कर्तुम्, आयाति, तत्, कृत्वा, आसे, यथासुखम् ॥ शब्दार्थ |
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
शरीर आदि करके
कृतम् = किया हुआ कर्म किमपि कुछ भी
एव = वास्तव में
न आत्मकृतम् =
आत्मा करके नहीं किया हुआ
स्यात् होय है
इति= ऐसा तत्त्वतः=यथार्थ
अन्वयः ।
संचिन्त्य विचार करके
यदा=जब
यत् = जो कुछ कर्म कर्तुम् = करने को आयाति= पड़ता है
तत् = उसको कृत्वा = करके
यथासुखम् = सुख पूर्वक
आसे मैं स्थित हूँ ||