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अन्वयः ।
त्वम्= तु
विप्रादिकः = ब्राह्मण आदि वर्ण: =जाति
न=नहीं है
+ च=और
न=न (तू)
आश्रमी=
{
चारों आश्रमवाला
है
+ च =और
पहला प्रकरण |
शब्दार्थ |
न=न ( ( तू )
अन्वयः ।
अक्षगोचरः=
१३
शब्दार्थ |
आँख आदि इंद्रियों का विषय है
{
+ परन्तु = परंतु
+ त्वम्=तू
असंगः=असंग ( एवं ) निराकारः = निराकार
विश्वसाक्षी = विश्व का साक्षी असि है
+ इति मत्वा =ऐसा जान करके
सुखी=मुखी
भव हो ||
भावार्थ |
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निराकार सच्चिदानन्द-रूप एक ही निर्गुण आत्मा सर्वत्र व्यापक है । जैसे एक ही आकाश सर्वत्र व्यापक है । परंतु घट मठ आदि उपाधियों के भेद करके घटाकाश, मठाकाश ऐसा व्यवहार होता है और उपाधियों के भेद करके आकाश का भी भेद प्रतीत होता है, वास्तव में आकाश का भेद नहीं है । वैसे एक ही व्यापक आत्मा का अंतःकरण रूपी उपाधियों के भेद करके भेद प्रतीत होता है, वास्तव में आत्मा का भेद नहीं है । जैसे अनेक घटों में आकाश एक भी है, परंतु किसी घट में धूलि भरी है और किसी में धूम भरा है, और किसी में नीलपीतादिक वर्णोवाले पदार्थ भरे हैं, उन धूलि आदिकों के साथ यद्यपि कोई आकाश का वास्तविक सम्बन्ध नहीं है, तथापि धूल आदिकवाला प्रतीत होता है, वैसे आत्मा का भी अन्तःकरण और उसके धर्मों के साथ