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________________ १८० अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० अन्वयः। इदम् यह ___ शाम्यति= 1 होता है शब्दार्थ। | अन्वयः । शब्दार्थ निश्चयी निश्चय करनेवाला विश्वम् संसार निर्वासनः वासना-रहित नानाश्चर्यम्=अनेक आश्चर्यवाला स्फतिमात्र: बोध-स्वरूप पुरुष _ कुछ नहीं है न किञ्चिदिव-व्यवहार-रहित नकाय । अर्थात् मिथ्या है शान्ति को प्राप्त इति इस प्रकार भावार्थ । प्रश्न-हे प्रभो ! ब्रह्मज्ञानी के मन के संकल्प कैसे स्वतः नष्ट हो जाते हैं ? उत्तर-जब अधिष्ठान चेतन के साक्षात्कार होने से अध्यस्त वस्तु का बाध हो जाता है अर्थात् आत्मा के साक्षात्कार होने से जब नाना प्रकार के आश्चर्य-रूप विश्व का बाध हो जाता है, तब विद्वान के मन के सर्व संकल्प दूर हो जाते हैं। प्रश्न-हे प्रभो ! यदि आत्मा के साक्षात्कार होने से जगत् का बाध अर्थात् नाश हो जाता है, तो फिर पञ्चभूतात्मक जगत् भी न रहता, और जगत के नाश होने पर विद्वान् के देहादिक भी न रहते, पर ऐसा तो नहीं देखते हैं, इसी से जाना जाता है कि आत्मा के साक्षात्कार होने पर भी जगत् ज्यों का त्यों बना रहता है ? उत्तर-नाश दो प्रकार का है। एक तो बाध-रूप नाश है, दूसरा निवृत्तिरूप नारा है।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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