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१६८ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
अविद्या के अंश अन्तःकरण नाना हैं, उनमें प्रतिबिंबित चेतन भी नाना हैं । चेतन के तीन भेद हैं। १-विषयचेतन, २-प्रमाणचेतन, ३-प्रमातृचेतन ॥
घटावच्छिन्नचैतन्यं विषयचैतन्यम् ॥ घटावच्छिन्न चेतन का नाम विषयचेतन है ॥ १ ॥ अन्तःकरणवृत्त्यवच्छिन्नचैतन्यं प्रमाणचैतन्यम् ॥
अंतःकरण की वृत्त्यवच्छिन्न चेतन का नाम प्रमाणचेतन है ॥२॥
अन्तःकरणावच्छिन्नं चैतन्यं प्रमातृचैतन्यम् ॥ अन्तःकरणावच्छिन्नं चेतन का नाम प्रमातृचेतन है ।। ३ ।।
घटादिक विषय अनन्त हैं, इसलिये उनसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तःकरण की वृत्तियाँ भी अनन्त हैं और अन्तःकरण भी अनन्त हैं, इन उपाधियों के भेद करके चेतन के भी अनन्त भेद हो गये हैं। वास्तव में चेतन एक महाकाश की तरह है। जैसे महाकाश का घटमठादि उपाधियों के साथ वास्तव में कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वैसे कल्पित उपाधियों के साथ अन्तःकरणों का कोई भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसे निश्चय करनेवाला पुरुष निश्चल चित्त होकर कहीं भी संसक्त नहीं होता है ।। २ ।।
मूलम् । आपदः सम्पदः काले दैवादेवेति निश्चयी। तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञ्छति न शोचति ॥ ३ ॥