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ग्यारहवाँ प्रकरण।
मूलम् । भावाभावविकारश्च स्वभावदिति निश्चयी। निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति ॥ १॥
पदच्छेदः । भावाभावविकारः, च, स्वभावात्, इति, निश्चयी, निर्विकारः, गतक्लेशः, सुखेन, एव, उपशाम्यति ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। भावाभाव-भाव और अभाव निर्विकारः विकार-रहित विकारः । का विकार
गतक्लेशः क्लेश-रहित पुरुष स्वभावात्-स्वभाव से होता है । सुखेन एव-सुख से ही इति ऐसा
_ शान्ति को प्राप्त निश्चयो-निश्चय करनेवाला
भावार्थ । अब ज्ञानाष्टक नामक एकादश प्रकरण का आरम्भ करते हैं।
चित्त की शान्ति आत्म-ज्ञान से ही होती है, विना आत्म-ज्ञान के किसी उपाय करके नहीं होती है। इस वास्ते प्रथम आत्म-ज्ञान के साधनों को कहते हैं।
भावाभाव अर्थात् स्थूल-सूक्ष्मरूप करके जितने विकार अर्थात् कार्य हैं, वे सब माया और माया के संस्कारों से ही
उपशाम्यति- होता है ।