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दशवाँ प्रकरण ।
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अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ।
त्रीणि-तीन मित्र, क्षेत्र, धन, मित्रक्षेत्रधना
मकान, स्त्री, भाई गारदारदाया%A
वाम्या आदि सम्पत्तियों दिसम्पदः
पञ्चपाँच | को स्वप्नेन्द्रजाल-_स्वप्न और इन्द्र- ।
दिनानि-दिनों तक वत् । जाल के समान
पश्य=(तू ) देख
भावार्थ । प्रश्न-अनेक प्रकार के सुखों को देनेवाले जो स्त्री पुत्रादिक विषय हैं, उनका निरादर करके त्याग कैसे हो सकता है ?
उत्तर-हे शिष्य ! स्त्री, पुत्र, धन, मित्र क्षेत्रादिक जितने कि भोग के साधन हैं, इन सबको तुम स्वप्न और इन्द्रजाल की तरह देखो, क्योंकि ये सब पाँच या तीन दिन के रहने वाले हैं, और सब दृष्टनष्ट हैं याने देखते ही नष्ट हो जाते हैं । इस वास्ते इनमें ममता का त्याग करना उत्तम है ॥ २ ॥
मूलम् । यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै । प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव ॥३॥
पदच्छेदः । यत्र, यत्र, भवेत्, तृष्णा, संसारम्, विद्धि, तत्र, वै, प्रौढवैराग्यम्, आश्रित्य, वीततृष्णः, सुखी, भव ॥