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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
वासना, दूसरी मलिन वासना । किसी प्रकार से मेरी मुक्ति हो और मैं अपनी आत्मा का साक्षात्कार करूँ, उसके लिये जो वृत्ति आदिकों का निरोध करना है, वह शुभ वासना है । विषय भोगों की प्राप्ति की जो वासना है, वह मलिन वासना है । दोनों में से मलिन वासना जन्म का हेतु है और शुद्ध वासना जन्म का नाशक है । जो चतुर्थ भूमिकावाला ज्ञानी है और जो मुमुक्षु है, उनके लिये शुभ वासना का त्याग नहीं है, किन्तु अशुभ वासना का ही त्याग है । क्योंकि विदेहमुक्ति में आत्म-ज्ञान की ही प्रधानता है । शुभ वासना का नाश उपयोगी नहीं है, परन्तु जीवन्मुक्ति के लिये समग्र वासनाओं का त्याग और मन का भी नाश और आत्म-ज्ञान, ये तीनों उपयोगी हैं ।
यहाँ पर अष्टावक्रजी जीवन्मुक्ति के मुख के लिये जनकजी से कहते हैं कि तू समग्र वासनाओं का त्याग
कर ।। ८ ।।
इति श्री अष्टावक्रगीतायां नवमं प्रकरणं समाप्तम् ।
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