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१४६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
गुरुजन जाका है गृही, चेला गृही जो होय । कीच कीच को धोवते, दाग न छूट कोय ॥ २ ॥ बँधे को बंधा मिल, छुटै कौन उपाय । सेवा कर निबंध की, पल में देय छुड़ाय ।। ३ ॥
एवं 'गुरु-गीता' में भी अज्ञानी मूर्ख गुरु का त्याग करना ही लिखा है
ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो मिथ्यावादी विडम्बकः । स्वविश्रांति न जानाति परशान्ति करोति किम् ॥ १॥
जो गुरु ज्ञान से हीन हो, मिथ्यावादी हो, विडम्बी हो, उसका त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि जब वह अपना ही कल्याण नहीं कर सकता है, तो शिष्यों का कल्याण क्या करेगा। ऐसे मूर्ख अज्ञानी गुरु के त्याग में बहुत से शास्त्रोक्त प्रमाण हैं, पर मूर्ख अज्ञानी लोग कुकर्मी मूर्ख गुरुओं को नहीं त्यागते हैं, क्योंकि प्रथम तो लोग आत्मा के ही कल्याण को नहीं जानते हैं। दूसरे उनके चित्त में भय रहता है कि गुरु के निरादर करने से हमारे को कोई विघ्न न हो जावे, इसी से मों के मुर्ख जन्म भर उनके पशु बने रहते हैं। इन मूर्ख शिष्य-गुरुओं का इस जगह में निरूपण करने का कोई प्रकरण नहीं है, इस वास्ते उनका प्रसंग छोड़ दिया जाता है । हे राजन् ! ज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर गुरुशिष्य-व्यवहार भी मिथ्या हो जाता है, क्योंकि उसकी भेदबुद्धि नहीं रहती है ॥ ६ ॥