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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
आत्मा सत्य-रूप, ज्ञान-स्वरूप और आनन्द-रूप है। इस श्रुति के साथ विरोध आता है। दूसरा, दोनों ईश्वर आत्मा के जड़ मानने से जगदांध प्रसंग होगा।
यदि यह मान लिया जाय कि कर्म जड़ है, आत्मा जड़ है, ईश्वरात्मा भी जड़ है, तो फिर भोक्ता, कर्ता और फलप्रदाता कोई भी नहीं होगा। क्योंकि जड़ में भोक्तापना, कपिना आदिक शक्ति बनती नहीं, और जड़ के गुण ज्ञान
और चेतनता बन नहीं सकते हैं, क्योंकि गुण-गुणी का भेद नहीं होता । जैसे अग्नि और उष्णता; जल और शीतलता का भेद नहीं है। यदि अग्नि से उष्णता और प्रकाश निकाल लिया जाय, तो अग्नि कोई वस्तु बाकी नहीं रहती है, और दोनों जड़ भी है। जैसे अग्नि के स्वरूप उष्ण और प्रकाश हैं वैसे ज्ञान और चेतनता भी दोनों आत्मा के स्वरूप ही हैं, आत्मा के धर्म नहीं हैं। क्योंकि गुण-गुणी भाव आत्मा में कहीं भी नहीं लिखा है। और चेतनता जड़ का धर्म है, इसमें कोई भी दृष्टान्त नहीं मिलता है, इसलिये नैयायिक का कथन असंगत है ।
यदि ईश्वर के इच्छादिक गुणों को नित्य माना जाय, तो ईश्वर की इच्छानुसार जगत की उत्पत्ति अथवा प्रलय सर्वदा हुआ करेगी याने दोनों में से एक ही होगा, दोनों नहीं होगे।
__ यदि यह माना जाय कि दोनों कभी प्रलय, कभी सृष्टि, तब ईश्वर की इच्छा अनित्य हो जावेगी।
सारे जीवात्मा व्यापक भी नहीं हो सकते हैं, यदि ऐसा